पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/९०

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कबीर साहब ३५ जहाँ प्रम तह नेम नहि तहाँ न बुधि ब्यौहार | भया कौन गिने तिथि वार ।। ६२ ।। प्रेम मगन जब मन प्रेम छिपाया ना जो पै मुख बोलै छिपे जा घट परघट होय | नहीं नन । देत हैं रोय ॥ ६२ ॥ पीया चाहे प्रेम रस राखा मान । खड़ग देखा सुना न कान ॥ ६३ ॥ का अन्तर लिया लगाय । एक म्यान में दो कबिरा प्याला प्रभ रोम रोम में रमि रहा और अमल का खाय ॥ ६४ ॥ पलंग बिछाय | नैनों की करि कोठरी पलकों की चिक डारि पुतली के पिय को लिया रिझाय ॥ ६५ ॥ जल में बसै कमोदिनी चन्दा यसै अकास । जो है जाको भावता सो ताही के पास ॥ ६६ ॥ प्रीतम को पतियाँ लिखूं जो कहूँ होय बिदेस | तन में मन में तन में ताको कहा संदेस ॥ ६७ ॥ साई इतना मैं भी भूखा ना रहूँ बिनवत हों कर जारि कै साधु सँगति सुख दीजिये दीजिये जा में कुटुंब समाय । साधु न भूखा जाय ॥ ६८ ॥ सुनिये कृपा निधान । दया गरीबी दान ॥ ६६ ॥ क्या सुख लै विनती करौं लाज तुम देखत आंगुन करौं कैसे भावौं अवगुन मेरे बाप जो बकसु जो मैं पूत कपून हौं तऊ पिता को लाज ॥ ७१ ॥ मेरी दौर | ठौर ॥ ७२ ॥ साहिब तुमहि दयाल हो तुम लगि जैसे काग जहाज को सूझे और न ऐसा चाहिये गुरु को सब कछु देय । गुरु तो ऐसा चाहिये सिख से कछु नहि लेय ॥ सिख तो ७३ ॥ आवत हैं मोहि || तोहि ॥ ७० ॥ गरीब निवाज ।