पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/८९

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३४ पावक रूपी नाम है सब घट रहा समाय । चित चकमक चहुदैं नहीं जो जन बिरही नाम के देही से उद्यम करें धूवाँ है है जाय ॥ ४८ ॥ तिनकी गति हैं येह । सुमिरन करें विदेह ॥ ४६ ॥ बिरहा बिरहा मत कहो बिरहा है सुल्तान | जा घट बिरह न संचरै सो घट जान मसान || ५० ॥ आगि लगी आकास में भरि भरि परै अँगार । afer जरि कंचन भया काँच भया संसार ॥ ५१ ॥ afar वैद बुलाइया पकरि के देखी बाहिं । वैद न वेदन जानई करक करेजे माँहि ॥ ५२ ॥ जाडु वैद घर आपने तेरा किया न होय । वेदन जिन या निर्मई भला सीस उतारे भुइँ धेरै तापर दास कबीरा यों कहै करेगा सोय ॥ ५३ ॥ राखे पाँव | ऐसा होय तो आव ॥ ५४ ॥ ऊपजे प्रेम परजा जेहि रुचै प्रेम न राजा विकाय । प्रेस न हाय । सीस देह ले जाय ॥ ५५ ॥ छिनहि चढ़ छिन ऊतरे सोतो अघट प्रेस पिञ्जर बसें प्रेम कहावै सत्य ॥ ५६ ॥ प्रेम प्रेम सब कोई कहे प्रेम न न हार चीन्हें काय | आठ पहर भीना रहें प्रेम कहायै सत्य ॥ ५७ ॥ जब मैं था तब गुरु नहीं अब गुरु हैं हम नाहि । जैसे खाल प्रेम गली अति साँकरी जा घट प्रेम न सचरै सो घट प्रेम तो ऐसा कीजियो जैसे घींच टूटि भुइँ माँ गिरे खितवै ता में दो न समाहि ॥ ५८ ॥ जान मसान 1 लुहार को साँस लेत थिन प्रान ॥ ५६ ॥ चंद चकोर वाही ओर ॥ ६० ॥