पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/७८

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विद्यापति ठाकुर अँगने आओब जब रसिया, २३ रस नागरि पलदि चलब हम इषत हँसिया । रमनी, कत कत जुगुति मनहिं अनुमानी । आवेशे आँचरे पिया धरबे, केंचुया धरब जब जाओ हम जतन बहु करवे । हठिया, करे कर बाँधव कुटिल आध दिठिया । रभस माँगब पिय जबहीं, सहजहि सुपुरुख मुख मोड़विहँसि बोलब नहिं नहिं । भमरा, मुख कमल मधु पीयब हमरा । ने हर मोर गेयाने, विद्यापति कह धनि तुय घेयाने ॥१४॥ धोरे । चोरे ॥ सरस बसंत समय भल पाओलि दछिन पवन बहु सपनहु रूप बचन यक भाषिय मुख से दुरि करु तोहर वदन सम चाँद होअधि नहिं जैयो जतन बिह देला || कैपेरि काटि बनावल नव कय तैयो तुलित लोचन तूअ कमल नहिं भैसक से जग के से फिर जाय लुकैनह जल भय पंकज नहि भेला । नहि जाने । निज अपमाने ॥ नहि विद्यापति सुन वर जौवित ईसम लछमि समाने । राजा शिवसिंह रूपनरायन लखिमा देइ प्रति भाने ।। १५ ।। जरत देखलि पथ नागरि सजनी आगरि सुबुधि कनकलता सम सुन्दरि सजनी विह निरमावल सथानि । आनि || हस्ति गमनि जंगा चलइत सजनी देखइत राजकुमारि । जिनका यह न सुहागिन सजनी पाय पदारथ चारि ॥