पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/१३१

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मधुबन बसत भास दरसन की ओर नैन मग हारे ! सूरज श्याम करी पिय ऐसी मृतकहु ते पुनि मारे ॥ ४० ॥ रुकमिति मोहि ब्रज बिसरत नाहीं । वा क्रीड़ा खेलत यमुना तट विमल कदम की छोहीं ॥ सकल सखा अरु नन्द यशोदा वे चितर्ते न दराहीँ । सुतहित जानि नन्द प्रतिपाले बिछुरत विपति सहाहीं ॥ यद्यपि सुख निधान द्वारावति तड मन कहु न रहाहीँ । सूरदास प्रभु कुंज बिहारी सुमिरि सुमिरि पछताहीं ॥ ४१ ॥ सखीरी श्याम सबै इक सार । मोठे वचन सुहाये बोलत अन्तर जारनहार । भँवर कुरंग काम अस कोकिल कपटिन की चटसार । सुनहु सखोरी दोष न काहू जो बिधि लिखो लिलार ॥ उमड़ी घटा नाखि आवे पावस प्रेम की प्रीति अपार । सूरदास सरिता सर पोखत चातक करत पुकार ॥ सखीरी श्याम कहा हित जाने । नेत ४२ ॥ ठाने ॥ आने । ॥ ४३ ॥ कोऊ प्रीति करे कैसेह वे अपनो गन देखो या जलधर की करनी वरलत पोष सूरदास सरबस जो दीजै कारों कृतहि न मानै मेरे कुअर कान्ह बिनु सब कुछ वैसहि धो रहे । को उठि प्रात होत ले भाखन को कर सूने भवन यसोदा सुत के गुन दिन उठि घेरत ही घर ग्वारिनि जो ब्रज में आनन्द हो तो सूरदास स्वामी बिनु गोकुल है ॥ गुनि सूल सहै । उरहन कोउ न कहै । गर्दै मुनि मनसाहू न कौड़ी न लहे ॥ ४४ ॥