पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/१३०

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सूरदास ७५ यदपि वसुदेव देवकी मथुरा सकल राज सुख भोग । सद्यपि मनहि बलत बंशीवट व्रज यमुना संयोग ॥ वे उत रहत प्रेम अवलम्बन इतते पठयो योग । सूर उसास छाँड़ि भरि लोचन बढ्यो विरह ज्वर सोग ॥३६॥ ऊधो मोहि ब्रज बिसरत नाहीं । वृंदावन गोकुल तन आवत सघन तृणन की छोहीं ॥ प्रात समय माता यशुमति अस नन्द देख सुख पावत । माखन रोटी दह्यो सजायो अति हित साथ खवावत || गोपी rare बाल सँग खेलत सब दिन हँसत खिरात । सूरदास धनि धनि व्रजवासी जिन सों हँसत व्रजनाथ ॥ ३७ ॥ हरि बिन कौन दरिद्र हरै । कहत सुदामा सुनसुन्दरि जिय मिलन न हरि बिसरे ॥ और मित्र ऐसे समया मह कत पहिचान करै । चिपति परे कुशलात न बूझे बात नहीं बिचरै ॥ उठिके मिले तेंदुल हम दीने मोहन बचन फुरै | सूरदास स्वामी की महिमा द्वारी विधि न दरै ॥ ३८ ॥ और को जाने रस की रीति । कहाँ हैं। दीन कहाँ त्रिभुवन पति मिले पुरातन प्रीति ॥ चतुराजन सन निमिष न चितचत इती राज की नीति । मोसे बात कही हिरदय की गये जाहि युग बोति ॥ बिनु गोविन्द सकल सुख सुन्दरि भुस पर कोसी भीति । कहाँ कहें सूरकेप्रभु की निगम करत जाकी क्रीत ॥ ३६ ॥ ना भये अनाथ हमारे । मदन गोपाल वहाँ तें सजनी सुनियत दूरि सिधारे ॥ ये जल सर हम मीम बापुरी कैसे जिबहिं निनारे | हम चातक चकोर श्यामघन बदम सुधानिधि प्यारे ॥