पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/१२६

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

सरदास ७२ ओ कोउ कोटि करें कैसे हु विधि विद्या व्यवसाउ | तो सुन सूर मीन को जल बिन नाहिन और उपाउ ॥ २४ ॥ ऊधो जी हमहि न योग सिखये । जेहि उपदेश मिले हरि हमको सो व्रत नेम वतैये ॥ मुक्ति रहो घर बैठि आपने निरगुन सुनत दुख पैये । जेहि सिर केस कुसुम भरि गूदे तेहि कैसे मसम चढ़ये ।। जानि जानि सब मगन भये हैं आपुन आपु लखैयै । सूरदास प्रभु सुनत न वा बिधि बहुरि किया त्रज ऐये ॥ २५ ॥ ऊधो कहा मति दीन्हों हमहिं गोपाल | आवहु री सखी सब मिलि जो पायें नंदलाल ॥ घर बाहर ते बोलि लेहु सब जावदेक ब्रज वाल । कमलासन बैठठु री माई मूँदहु देखी हाथ नैन बिशाल || कछू नहि आई। लोचन नेकु न देत दिखाई || षटपद कही लोऊ करि सुन्दर श्याम कमल दल फिरि भई मगन विरह सागर में काहुहि सुधि न रही । पूरण प्रेम देखि गोपिन को मधुकर मौन गही ॥ कछु ध्वनि सुनि श्रवणन चातक की प्राण पलटि तनु आये । सूर सो अब के टेरि पपीहै विरही मृतक जिवाये ॥ २६ ॥ मुख देखे की कौन मिताई । जैसे कृपणहिँ दीन माँगना लालच लीने करत बड़ाई ॥ प्रीतम सो जा रहे एकरेल निसिवासर बढ़ि प्रेम सवाई । चितमह और कपट अंतर्गत ज्यों फलखीर नीर चिकनाई ॥ तब वह करी नंद नंदन अलि बन बेली रसरास खिलाई । - अब यह कितही दूर मधुपुरी ज्यों उड़ि भँवर वेलि तजि आई । योग सिखाये क्यों मनमाने क्योऽब भोसकम प्यास बुझाई । ..सूरजदास उदास भई हम पूरब प्रीति उघरि निजभाई ॥ २७ ॥