पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/१२४

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

जिन कोउ काह के वश होहि । ६६ ज्यों चकोर दिनकर बश डोलत मोह फिरावत मोहिं ॥ हम तो रीफ लटू भर लालन महा प्रेम जिय जानि । बन्ध अबन्ध अमति निशि वासर को सरभावति आनि ॥ उ सङ्ग अङ्ग अङ्ग प्रति विरह वेलि की नाई । मुकुलित कुसुम नैन निद्रा तजि रूप सुधा सियराई ॥ अति आधीन हीन अति व्याकुल कहाँ लों करों बनाइ । ऐसी प्रीति करी रचना पर सूरदास बलि जाइ ॥ १८ ॥ कहो कान्ह सुन यशुमति मैया । भैया ॥ सबेरो । मेरो ॥ आवहिंगे दिन चार पाँच में हम हलधर दोउ मुरली वेत विषाण देखिये शृंगी बेर लै जिनि जाइ चुराह राधिका कछुक खिलौना जादिन तें तुम से बिछुरे हम कोऊ न कहत कन्हैया | भोरहि नाहि कलेऊ कीनो साँझ न पय पीया ना घेया ॥ कहत न बन्यो संदेशो मोपै जननि अब हम सों वसुदेव देवकी कहिये कहा नंद बाबा सों बहुत जितो दुख पायो । कहत आपनो जायेो ॥ निठुर भन कीनो । सूर हमहि पहुँचाइ मधुपुरी बहुरो सोध न लीनो ॥ १६ ॥ मधुकर हम न होहिं वे बेली । जिन भजि तजि तुम फिरत और रैंग करत कुसुम रस केली ॥ वारे ते वर बाजि बढ़ी है अरु पोषी पिय पानि । बिनु पिय परस प्रात उठि फूलत होत सदा हित हानि ॥ हैं वेली विरहा वृन्दावन उरकी श्याम तमाल | पुहुप वास रस रसिक हमारे विलसत मधुप गोपाल || योग समीर धीर नहि डोलत रूप डार ढिग लागि । सूर परागनि तजति हिये ते श्री गुपाल अनुरागि ॥ २० ॥