पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/१२१

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६६ कविता - कौमुदी तू जो कहति बल की बेनी ज्यों है है लॉबी मोटी । काढ़त गुहत नहावत ओछत नागिन सी व लोटी || काचो दूध पियावत पचि पचि देत न माखन रोटी । सूर श्याम चिरजीवी होऊ, भैया हरि हलधर की जोटी ॥ ७ ॥ स्वेलन अब मेरी जात बलैया । मैया । वटैया ॥ मैया | जबहि मोहि देखत लरिकन सँग तर्बाहि विकत बल भैया ॥ मोस कहत तात वसुदेव को देवकी तेरी मोल लियो कछु दे वसुदेव को करि करि यतन अब बाबा कहि कहत नंद को यसुमति को कहै ऐसेहि कहि सब मोहि खिभावत तब उठि चलो खिसैया ॥ पाछे नंद सुनत हैं ठाढ़े हँसत हंसत उर लैया । सूरनौंद बलिरामहि धिरयो सुनि मन हरख कन्हैया ॥ ८ ॥ कमलनयन कछु करा बियारी । लुचुई लपसी सद्य जलेबी सोइ जेवहु जो लगे पियारी ॥ घेवर मालपुआ मुतिलाडू सुधर सजूरी सरस सवारी । दूध बरा उत्तम दधि बाटी दाल मसूरी की रुचि न्यारी ॥ आछो दूध औदि धौरी को मैं ल्याई रोहिणि महतारी । सूरदास बलराम श्याम दोउ जेथे हैं जननि जाइ बलिहारी ॥६॥ जेंवत श्याम नंद की कनियाँ । कछुक खास कछु धरनि गिरावत छबि निरखत नँद रनियाँ ॥ वरी बरा बेसन बहु भाँतिन व्यंजन विविध अनगनियाँ । डारत यात लेत अपने कर दचि मानत दधि दनियाँ ॥ मिश्री दधि माखन मिश्रित करि मुख नावत छविधनियाँ । आम बात नन्द मुख नावत सो सुख कहत न बनियाँ ॥ जो रस मन्द यशोदा बिलसत सेो नहिं तिहू भुवनियाँ । भोजन करि मन्द अचवन किया मांगत सूर जुठनियाँ ॥ १० ॥