पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/१२०

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घुटुरुचन चलत श्याम मणि मनन ६५ मात पिता दोउ देखत री कबक किलकिलात मुख हेरत, कबहुँ जननि मुख पेलत री ॥ लटकन लटकत ललित भाल पर काजर बिंदु स्रुव ऊपर री । यह सोभा नैननि भरि देखें नहिं उपमा कडु भू पर री ॥ कबहुँक दौरि घुटुरुषन लटकत गिरत परत फिरि धावत री । इतते नंद बुलाइ लेत हैं, उतते जननि बुलाषति री ॥ में श्याम खिलौना कीनो री । दंपति होड़ करत आपुस सूरदास प्रभु ब्रह्म गहे अँगुरिया तात सनातन सुत हितकरि दोड लीनो री ॥ ५॥ की नँद चलन सिखावत | अरबराइ गिरि परत है कर टेकि बार बार बकि श्याम सों कछु बोल दुहुँघा दोड देतुली भई अति मुख छवि कबहुँ कान्ह कर छाँड़ि नंद पग हूँ करि कबहु धरणि पर बैठिके मन महँ कबहुँ उलटि चलें धाम को घुटरुन सूर श्याम मुख देखि महर मन हर्ष मैया कबहि बढ़ेगी चोटी । उठावत ॥ बकावत । पावत ॥ धावत । कछु गावत ॥ करि धावत । बढ़ावत ॥ ६ ॥ कितीबार मोहिं दूध पियत भर यह अजह है छोटी ॥ ५