पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/११८

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तुरवास ६३ हिन्दी साहित्य में सुरदास का गौरव कितना है, यह इस दोहे से भली भाँति समझा जा सकता है- "सुर सूर तुलसी ससी, उडुगन केशवदास अब के कवि खद्योत सम, जह तह करें प्रकास" गोपियों के विरह वर्णन में सूरदास ने इद्गत भावों के झलकाने में कमाल कर दिया है। सूरदास काव्य शास्त्र के पंडित थे। पुराणों का इन्हों ने अच्छा अध्ययन किया था। महाप्रभु वल्लभाचार्य ने ब्रजभाषा के सुप्रसिद्ध आठ कवियों को मिला कर अष्टछाप स्थापित किया था । उनके नाम हैं—कृष्णदास, परमानन्द दास, कुभनदास, चतुर्भुजदास, छीत स्वामी, नन्ददास, गोविन्द स्वामी, सूरदास । इन आठों में सूरदास सब से उत्तम थे । सूरदास ने ८० वर्ष की अवस्था में गोकुल में शरीर छोड़ा। इनका अंतिम भजन यह है, जो शरीर छोड़ते समय इन्होंने कहा- खंजन नैन रूप रस भाते । अति से चारु चपल अनियारे पल पिंजरा न समाते । चल चल जात निकट श्रवनन के उलट पलट ताटंक फंदाते ॥ सुरदास अंजन गुन अटके नातर अब उड़ि जाते || प्राचीन मनुष्यों की कहावत है कि ये उद्भव के अवतार थे । इस में संदेह नहीं कि इनके हृदय में वास्तविक प्रेम था । ये प्रेम की दशा से पूर्ण अभि थे और भगवान श्री कृष्ण को सखा भाव से भजने वाले भक थे । यद्यपि इनके पद पद में लालित्य भरा है परन्तु स्थाना-