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धर्मदास। ५५

धर्मदास जी बालकपन से ही बड़े धर्मात्मा और भगवतचर्चा के प्रेमी थे, साधु, संतों और पंडितों का बड़ा आदर सत्कार करते थे। इन्होंने दूर दूर तक तीथों की यात्रा की थी ।

  मथुरा से आते समय कबीर साहब से इनका साक्षात् हुआ | कबीर साहब ने मूर्तिपूजा और तीर्थ व्रत आदि का खंडन मंडन करके इनका चित्त संत मत की ओर झुकाया ।फिर तो ये बराबर कबीर साहब से मिलते रहे और अपना संशय मिटाते रहे । "अमर सुख निधान" ग्रन्थ में इनकी और कबीर साहब की बातचीत विस्तार के साथ लिखी है उनमें बहुत'सी ज्ञान की बातें हैं ।
  कबीर साहब की शरण में आने पर धर्मदास जी ने अपना सारा धन लुटा दिया । सं० १५७५ वि० में जब कबीर साहब परमधाम को सिधारे तब उनकी गद्दी धर्मदास जी को मिली । उससे पंद्रह या बीस वर्ष के बाद इन्होंने भी इस संसार को छोड़ा |
  इनकी शब्दावली में से कुछ पद चुनकर हम यहाँ उद्धृत करते हैं-
  मोरे पिया मिले सत ज्ञानी ।

ऐसन पिय हम कबहू न देखा देखत सुरत लुभानी || आपन रूप जब चीन्हा बिरहिन तब पिय के मन मानी ॥ कर्म जलाय के काजल कीन्हा, पढ़े प्रेम की बानी ॥ कर्म जब हंसा चले मानसरोवर मुक्ति भरे जहँ पानी।।

धर्मदास कबीर पिय पाये मिट गई आवाजानी।।