पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/१०४

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कबीर साहब योगी के योगिन ह बैठी राजा के घर रानी । काहू के हीरा है भक्तन के भक्तिनि बैठी काहू के कौड़ी कानी ॥ हूँ बैठी ब्रह्मा के ब्रह्मानी । कहै कबीर सुनों हो सन्तो यह सब अकथ कहानी ॥ १८४ ॥ ॥ पायो सत नाम गरे कै हरवा । सॉकर खटोलना रहनि हमारी दुबरे दुबरे पाँच कहरवा । ताला कु जी हमैं गुरु दीन्ही जब चाहों तब खोलों किवरवा ॥ प्रेम प्रीति की चुनरी हमारी जब चाहीँ तब नाचौं सहरवा । कहै कबीर सुनो भाई साधो बहुरन ऐबै पही नगरवा ॥ १८५ ॥ कैसे दिन कटि जतन बताये जइयो || एहि पार गंगा वोहि पार यमुना विचवा मड़इया हम को छवाये जइयो || अंचरा फारि के कागद बनाइन अपनी सुरतिया हियरे लिखाये जायेो ॥ कहत कबीर सुनो भाई साधो aftयाँ पकरि के रहिया बताये जइयो । १८६ ॥ करम गति टारे नाहि दरी । मुनि बसिष्ट से परिडत ज्ञानी सोध के लगन सीता हरन मरन दसरथ को बन में विपति कह वह फंद कहाँ वह पारधि कहँ वह मिरग सीता को हरि लैगो रावन नीच हाथ हरिचन्द्र बिकाने घरी । चरी । परी ॥ सुबरन लंक जरी ॥ बलि पाताल धरी । कोटि गाय नित पुन करत नृग गिरिगिट जानि पांडव जिनके आपु सारथी तिन पर विपति दुरजोधन को गरब पटायो जदुकुल नास ४ परी ॥ परी । करी ।