पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/१०१

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४६ लख चौरासी जोनि में मानुष जन्म अनूप । शाहि पाय नर चेतत नाहीं कहा र्रक कहा भूप ।। सुघर ॥ गर्भ पास में रह्यो की मैं भजिहौं तोहीं। निस दिन सुमिरौं नाम कष्ट से काढ़ौ मोहीं ॥ चरनन ध्यान लगाइ के रहीं नाम लौ लाय । तनिक न तोहि बिसारिही यह तन रहे कि जाय । सुघर | इतना कियो करार काढ़ि गुरु बाहर कीना । भूलि गयौ यह बात भयौ माया आधीना ॥ भूली बातें उद्भ की आन पड़ी सुधि एत । बारह बरस बीतिगे या विधि खेलत फिरत अचेत ॥ सुघर ॥ विषया चलत बान निहारत समान देह जोबन मदमाती । छाँह तमकके बोलत बाती ॥ चलन रंगाय । चोवा चन्दन लाइ के पहिरे गलियाँ गलियाँ hint मारे परतिरियालखमुसकाय ॥ सुधर ॥ गइ बीत बुढापा तरुतापन आनि तुलाने । कोपन लागे सीस चलत दोउ चरन पिराने ॥ नन नालिका चूवन लागे मुख तें आवत बास । कफ पित कंठे घेर लिया है छुटि गइ घर की आस ॥ सुधर ॥ मातु पिता सुत नारि कही काके सङ्ग जाई । तन धन घर औ काम धाम सब हो छुट जाई ॥ आखिर काल घसीटि है पड़ि हो जम के फन्द | बिन सतगुरु नहि बाँचिहौ समुझ देख भतिमन्द || सुघर || सुफल होत यह देह नेह सतगुरु मुकी मारग से जानि चरन सतगुरु चित्त नाम गहौ निरभय रहो तनिक कीजे । दीजं ॥ न व्यापै पीर । यह लोला हे मुक्ति की गावत दासकबार ||सुघर १७६||