पृष्ठ:कविता-कौमुदी 1.pdf/१००

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कबीर साहब विधिगति बाम कछु समझ परत ना बैरी भई महतारी । रोय पेय अँखियाँ मोर पोंछत घरवों से देत निकारी । भई सब को हम भारी गवन कराय पिया ले चाले इत उत बाट छूटत गाँव नगर से नाता छूटै महल निहारी । अटारी ॥ करम गति टरै न दारी ॥ नदिया किनारे बलम मोर रसिया दीन्ह घूँघट पट टारी । थर थराय तन कपिन लागे काहू न देख हमारी । पिया ले आये कहैं कबीर सुनो भाई साधो यह पद अब के गोना बहुरि हमन हैं इस्क रहें आजाद या जो बिछुड़े है गोहारी ॥ लेहु विचारी । नहि औना करिले भेंट अंकवारी । एक बेर मिलि ले प्यारी ॥ १७७॥ मस्ताना हमनको होसियारी क्या । जग में हमन दुनिया से यारी क्या ॥ पियारे से भटकते दर बदर फिरते । हमारा यार हैं हम में हमन को इन्तिजारी क्या ।। खलक सब नाम अपने को बहुत कर सिर पटकता है 1 हमन गुरु नाम साँचा है हमन दुनिया से यारी क्या ॥ पियारे से । क्या ॥ न पल बिछुड़े पिया हमसे न हम बिछुड़े उन्हीं से नेह लागी है हमन को बेकरारी कवीरा इस्क का माता दुई को दूर कर दिल से । जो चलना राह नाजुक है हमन सिर बोझ भारी क्या ॥ १७८ ॥ सिरजन हार सुघर तनके पायके ॥ टेक ॥। भज ले काहे रही अचेत कहाँ यह औसर पैहो । फिर नहि ऐसी देह बहुरि पाछे पछि तैहो ।