यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
९६
कर्बला

मुस॰---( शरीक से गले मिलकर ) ऐसा कौन बदनसीब होगा, जिससे आपका कलाम न देखा गया हो।

शरीक---मैं हज़रत का ख़ादिम और नबी का गुलाम हूँ। बसरेवालों को फ़रियाद लेकर यज़ीद के पास गया था। वहाँ मालूम हुआ कि आप मक्का से रवाना हो गये हैं। मैं ज़ियाद के साथ ही इधर चल पड़ा कि शायद अापकी कुछ ख़िदमत कर सकूँ। यज़ीद ने अब सख़्ती की जगह नरमी और रियायत से काम लेना शुरू किया है। और, आज ज़ियाद की तक़दीर का असर देखकर मुझे यक़ीन हो गया है कि यहाँ के लोग हज़रत हुसैन से ज़रूर दग़ा कर जायँगे। हमे भी फ़रेब का जवाब फ़रेब ही से देना लाज़िम है।

मु॰---क्योंकर?

शरीक---इसकी आसान तरकीब है। मैं ज़ियाद को अपनी बीमारी की खबर दूँगा। वह यहाँ मेरी मिज़ाज-पुरसी करने ज़रूर अावेगा, आप उसे कत्ल कर दीजिए।

मु॰---अल्लाहताला ने फ़रमाया है कि मुसलमान को मुसलमान का ख़ून करना जायज़ नहीं।

शरीक---मगर अल्लाहताला ने यह भी तो फ़रमाया है कि बेदीन को अमन देना साँप का पालना है।

मु॰---पर मेरी इन्सानियत इसकी इजाजत नहीं देती।

शरीक---बेदीन को क़त्ल करना ऐन सबाब है। ज़िहाद में इन्सानियत को दखल नहीं, हक़ का रास्ता डाकुओं और लुटेरों से खाली नहीं है। और उनका खौफ़ है, तो इस रास्ते पर क़दम ही न रखना चाहिए। आप इस मसले को सोचिए।

[ बाहर से आदमियों का एक गिरोह हानी का दरवाज़ा तोड़कर अन्दर घुस जाता है।]

एक आ॰---इन्हीं ने हुसैन को खत लिखा था। पकड़ लो इन्हें।

मु॰---( सामने आकर ) यहाँ से चले जाओ।

दू॰ आ॰---यही हज़रत मुस्लिम हैं। इन्हें गिरफ़्तार कर लो।