यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
८५
तेरहवां परिच्छेद।

सुभाषिणी―खूब पास हुआ-कमिसेरियट के सौ सौ लिन्यानवे मुन्शियों ने भी ऐसी मुस्कुराहट या इशारेवाज़ी तो कभी न देखा होगा। अच्छा, जो तेरे मर्दुए का सिर तेरा ज़हरसी भाव पर घूम उठे सो ज़रा उस वेवारे के सिर में बादासरोगन मालिक कर दीजो।

मैं―“अच्छा। अब आहट से जान पड़ता है कि बाबू लोगों का भोजन हो गया और रमण बाबू के यहां आने का समय हुआ। इसलिये अब मैं तुम से बिदा होती हूं। सखी! जो कुछ तुमने सिखलाया है, उसमें से एक बात मुझे बहुत ही मीठी लगी-वही मुखचुम्मन! तो आओ, एक बार फिर उसे सीखूं।”

तब तो सुभाषिणी नें मेरा गला पकड़ा और मैंने उसका, और कस के लिपटकर हरएक ने दूसरी के गलों को खूब चूम चूमकर (दोनों ही ले) देर तक आंसू बहाया! आहा! इस से बढ़ कर भी कोई प्यार हो सकता है? सुभाषिणी के समान क्या कोई भी प्यार करना जानता है? मैं एक दिन मरूंगी, किन्तु सुभाषिणी को कभी न भूलूंगी।

_________

चौदहवां परिच्छेद।

मेरी प्राण देने की प्रतिज्ञा!

मैं हारानी को होशियार कर के अपने सोनेवाले घर में गई। बाबू लोगों का भोजन हो चुका था। इतने ही में एक बडा बखेड़ा