जायसी ग्रंथावली/पदमावत/९. राजा सूवा संवाद खंड

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(९) राजा-सुआ-संवाद खंड

राजै कहा सत्य कह सूआ। बिनु सत जस सेंवर कर भूआ॥
होइ मुख रात सत्य के बीता। जहाँ सत्य तहँ धरम सँघाता॥
बाँधी सिहिटि अहै सत केरी। लछिमी अहै सत्य कै चेरी॥
सत्य जहाँ साहस सिधि पावा। औ सतवादी पुरुष कहावा॥
सत कहँ सती सँवारै सरा। आगि लाइ चहुँ दिसि सत जरा॥
दुइ जग तरा सत्य जेइ राखा। और पियार दइहि सत भाखा॥
सो सत छाँड़ि जो धरम बिनासा। भा मतिहीन धरम करि नासा॥

तुम्ह सयान औ पंडित, असत न भाखड़ काउ।
सत्य कहहु तुम मोसौं, दहँ काकर अनियाउ॥१॥

सत्य कहत राजा जिउ जाऊ। पै मुख असत न भाखौं काऊ॥
हौं सत लइ निसरेउँ एहि बूते। सिंघलदीप राजघर हूँते॥
पदमावति राजा कै बारी। पदुम गंध ससि बिधि औतारी॥
ससि मुख, अंग मलयगिरि रानी। कनक सुगंध दुआदस बानी॥
अहैं जो पदमिनि सिंघल माहाँ। सुगँध रूप सब तिन्हकै छाहाँ॥
हीरामन हौं तेहिक परेवा। कंठा फूट करत तेहि सेवा॥
औ पाएउँ मानुष कै भाषा। नाहिं त पंखि मूठि भर पाँखा॥

जौ लहि जिऔं रात दिन, सँवरौं ओहि कर नावँ।
मुख राता, तत हटियर, दुहूँ जगत लेइ जावँ॥२॥

हीरामन जो कँवल बखाना। सुनि राजा होइ भँवर भुलाना॥
आगे आव, पंखि उजियारा। कहँ सो दीप पतंग कैमारा॥
अहा जो कनक सुबासित ठाऊँ। कस न होइ हीरामन नाऊँ॥
को राजा, कस दीप उतंगू। जेहि रे सुनत मन भएउ पतंगू॥
सुनि समुद्र भा चख किलकिला। कवँलहि चहौं भँवर होइ मिला॥
कहु सुगंध कस धनि निरमली। भा अलि संग, की अबहीं कली॥
औ कहु तहँ जहँ पदमिनि लोनी। घर घर सब होइ जो हानी॥

सवै बखान तहाँ कर, कहत सो मौसौं आव।
चहाँ दीप वह देखा, सुनत उठा अस चाव॥३॥


(१) भूआ = सेमल की रूई। मुख रात होइ = सुर्खरू होता है। सरा = चिता। (२) घरहूँते = घर से (प्रा॰ पंचमी विभक्ति 'हितो')। दुवादस बानी = बारह बानी, चोखा (द्वादश वर्ण अर्थात् द्वादश आदित्य के समान)। कंठा फूट = गले में कंठे की लकीर प्रकट हुई। सयाना हुआ। (३) पतंग कै मारा = जिसने पतंग बनाकर मारा। [ ३५ ]

का राजा हौं बरनौं तासू। सिंघलदीप आहि कैलासू॥
जो गा तहाँ भुलाना सोई। गा जुग बीति न बहुरा कोई॥
घर घर पदमिनि छतिसौ जाती। सदा बसंत दिवस औ राती॥
जेहि जेहि बरन फूल फुलवारी। तेहि तेहि बरन सुगंध सो नारी॥
गंध्रवसेन तहाँ बड़ राजा। अछरिन्ह महँ इंद्रासन साजा॥
सो पदमावति तेहि कर बारी। जो सब दीप माँह उजियारी॥
चहूँ खंड के बर जो ओनाहीं। गरबहि राजा बोलै नाहीं॥

उअत सूर जस देखिय, चाँद छपै तेहि धूप।
ऐसे सवै जाहिं छपि, पदमावति के रूप॥४॥

सुनि रवि नावँ रतन भा राता। पंडित फेरि उहै कहु बाता॥
तैं सुरंग मूरत वह कही। चित महँ लागि चित्र होइ रही॥
जनु होइ सुरुज, आइ मन बसी। सब घट पूरि हिये परगसी॥
अब हौं सुरुज, चाँद वह छाया। जल बिनु मीन रकत बिनु काया॥
किरिन करा भा प्रेम अँकूरू। जौं ससि सरग, मिलौं होइ सूरू॥
सहसौ करा रूप मन भूला। जहँ जहँ दीठ कँवल जनु फूला॥
तहाँ भौंर जिउ कँवला गंधी। भइ ससि राहु केरि रिनि बंधी॥

तीनि लोक चौदह खँड, सबै परै मोहिं सूझि।
पेम छाँड़ि नहिं लोन किछु, जो देखा मन बूझि॥५॥

पेम सुनत मन भूल न राजा। कठिन पेम, सिर देइ तौ छाजा॥
पेम फाँद जो परा न छूटा। जोउ दीन्ह पै फाँद न टूटा॥
गिरगिट छंद धरै दुख तेता। खन खन पीत, रात, खन सेता॥
जान पुछार जो भा बनवासी। रोंव रोंव परे फँद नगवासी॥
पाँखन्ह फिर फिरि परा सो फाँदू। उड़ि न सकै, अरुझा भा बाँदू॥
'मुयों मुयों' अहनिसि चिल्लाई। ओही रोस नागन्ह धै खाई॥
पंडुक, सुआ, कंक वह चीन्हा। जेहिं गिउ परा चाहि जिउ दीन्हा॥

तीतिर गिउ जो फाँद है, नित्ति पुकारै दोख।
सो कित हँकरि फाँद गिज, ( मेलै) कि मारे होइ मोख॥६॥

राजै लीन्ह ऊबि कै साँसा। ऐस बोल जिनि बोलु निरासा॥
भलेहि पेम है कठिन दुहेला। दुइ जग तरा पेम जेइ खेला॥
दुख भीतर जो पेम मधु रखा। जग नहिं मरन सहै जो चाखा॥
जो नहिं सीस पेम पथ लावा। सो प्रिथिमी महँ काहेक आवा॥


(३) उतंगू = उतुंग, ऊँचा। किलकिला = जल के ऊपर मछली के लिये मँड़रानेवाला एक जलपक्षी। होनी = बात, व्यवहार। (४) अछरी = अप्सरा। ओताही = झुकते हैं। (५) करा = कला। लोन = सुंदर।
१. यह पद एशियाटिक सोसाइटी बंगाल से प्रकाशित पदमावती में है।


(६) छंद = रूपरचना। पुछार = मयूर, मोर। नगवासी = नागों का फंदा [ ३६ ]

अब मैं पंथ प्रेम सिर मेला। पाँव न ठेलु, राखु कै चेला॥
पेम बार सो कहै जो देखा। जो न देख का जान बिसेखा॥
तौ लगि दुख पीतम नहि भेंटा। मिले, तौ जाइ जनम दुख मेटा॥

जस अनूप, तू बरनेसि, नखसिख बरनु सिंगार।
है मोहिं आस मिलै कै, जौ मेरवै करतार॥७॥






अर्थात् नागपाश। धै = धरकर। चीन्हा=चिह्न, लकीर, रेखा। (७) ऊबि कै साँस लीन्ह=लंबी साँस ली। दुहेला = कठिन खेल। पाँव न ठेलु = पैर से न ठुकरा, तिरस्कार न कर। बिसेखा = मर्म।