जायसी ग्रंथावली/पदमावत/१६. सिंहलदीप खंड

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(१६) सिंघलद्वीप खंड


पूछा राजै कहु गुरु सुआ। न जनौं आजु कहाँ दहुँ ऊआ॥
पौन बास सीतल लेइ आवा। कया दहत चंदनु जनु लावा॥
कबहुँ न ऐस जुड़ान सरीरू। परा अगिनि महँ मलय समीरू॥
निकसत आव किरित रविरेखा। तिमिर गए निरमल जग देखा॥
उठै मेघ अस जानहुँ आगै। चमके वीजु गगन पर लागै॥
तेहि ऊपर जनु ससि परगासा। औ सो चंद कचपची गरासा॥
और नखत चहुँ दिसि उजियारे। ठावहिं ठाँव दीप अस बारे॥

और दखिन दिसि नीयरे, कंचन मेरु देखाव।
जनू वसंत ऋतु आवै, तैसि वास जग आव॥१॥

तूँ राजा जस विकरम आदी। तू हरिचंद वैन सतबवादी॥
गोपिचंद तुईं जीता जोगू। ओ भरथरी न पूज बियोगू॥
गोरख सिद्धि दीन्ह तोहि हाथू। तारी गुरू मछंदरनाथू॥
जीत पेम तुईं भूमि अकासू। दीठि परा सिंघल कविलासू॥
वह जा मघ गढ़ लाग अकासा। बिजुरी कनव कोट चहुँ पासा॥
तेहि पर ससि जो कचपचि भरा। राजमँदिर सोने नग जरा॥
ओर जो नखत देख चहुँ पासा। सब रानिन्ह के आहि अवासा॥

गगन सरोवर, ससि कँवल, कुमुद॒ तराइन्ह पास।
तू रवि ऊआ, भौर होइ, पौन मिला लेइ बास॥२॥

सो गढ़ देखु गगन तें ऊँचा। नैनन्ह देखा, कर न पहुँचा॥
विजुरी चक्र फिरै चहुँ फेरी। औ जमकात फिरै जन केरी॥
धाइ जो बाजा कै मन साधा। मारा चक्र भएउ दुइ आधा॥
चाँद सुर औ नखत तराईं। तेहि डर अँतरिख फिरहिं सबाईं॥।
पौन जाइ तहँ पहुँचै चहा। मारा तैस लौटि भुईं रहा॥
अगिनि उठी, जरि बुझी निआना। धुआँ उठा, उठि बीच बिलाना॥
पानि उठा उठि जाइ न छूआ। बहुरा रोइ, आइ भुइँ चूआ॥

रावत चहा सौंह होइ, उतरि गए दस माथ।
संकर धरा लिलाट भुइँ, और को जोगीनाथ?॥३॥


(१) कचपची = कृत्तिका नक्षत्र। (२) आदी = आदि, बिल्कुल (बँगला में ऐसा प्रयोग अब भी होता है)। बैन = बचन अथवा वैन्य (वेन का पुत्र पृथु)। तारी = ताली, कुंजी। मछंदरनाथ = मत्स्येंद्रनाथ, गोरखनाथ के गुरु। कनय = कनक, सोना। (३) जमकात = एक प्रकार का खाँड़ा (यमकृत्तरि)। बाजा = पहुँचा, डटा। तैस = ऐसा। निआन = अंत में। जोगीनाथ = योगीश्वर। [ ६१ ]

तहाँ देखु पदमावति रामा। भौंर न जाइ, न पंखी नामा॥
अब तोहि देऊँ सिद्धि एक जोगू। पहिले दरस होइ, तब भोगू॥
कंचन मेरु देखाव सो जहाँ। महादेव कर मंडप तहाँ॥
ओहि क खंड जस परवत मेरू। मेरुहि लागि होइ अति फेरू॥
माघ मास, पाछिल पछ लागें। सिरी पंचिमी होइहि आगे॥
उधघरिहि महादेव कर बारू। पूजिहि जाइ सकल संसारू॥
पदमावति पुनि पूजै आवा। होइहि एहि मिस दीठि मेरावा॥

तुम्ह गौनहु ओहि मंडप, हौं पदमावति पास।
पूजै आइ बसंत जब, तब पूजै मन आस॥४॥

राजै कहा दरस जौं पावौं। परबत काह, गगन कहूँ धावौं॥
जेंहि परवत पर दरसन लहना। सिर सौं चढ़ौं, पाँव का कहना॥
मोहूँ भावै ऊचे ठाऊं। ऊँचे लेउँ पिरीतम नाऊँ॥
पुरुषहि चाहिय ऊँच हियाऊ। दिन दिन ऊँचे राखे पाऊ॥
सदा ऊंच पै सेइय बारा। ऊँचे सौं कीजिय वेवहारा॥
ऊँचे चढ़ैं, ऊंच खँड सूझा। ऊंचे पास ऊँच मति बूझा॥
ऊँचे सँग संगति निति कीजै। ऊँचे काज जीउ पुनि दीजे॥

दिन दिन ऊँच होइ सो, जेहि ऊँचे पर चाउ।
ऊँचे चढ़त जो खसि परै, ऊँच न छाँड़िय काउ॥५॥

हीरामनि देह बचा कहानी। चला जहाँ पदमावति रानी॥
राजा चला सँवरि सो लता। परबत कहूँ जो चला परबता॥
का परबत चढ़ि देखै राजा। ऊँच मंडप सोने सब साजा॥
अमृत सदाफर फरे अपूरी ।औ तहँ लागि सजीवन मूरी॥
चौमुख मंडप चहूँ केवारा। बैठ देवता चहूँ दुवारा॥
भीतर मँडप चारि खँभ लागे। जिन्ह वै छुए पाप तिन्ह भागें॥
संख घंट घन बाजहिं सोई। औ बहु होम जाप तहँँ होई॥

महादेव कर मंडप, जग मानस तहँ आव।
जस हींछा मन जेहि के, सो तैसे फल पाव॥६॥


 

(४) पछ = पक्ष। उघरिहि = खुलेगा। बारू = बार, द्वार। दीठि मेरावा = परस्पर दर्शन। (५) वूझा = बूझ, समझता है। खसि परै = गिर पड़े। (६) बचा कहानी = वचन और व्यवस्था। लता = पद्मलता, पद्मावती। परबता = सुआ (सुए का प्यार का नाम)। का देखै = क्या देखता है कि। हींछा = इच्छा।